Thursday, February 17, 2011


न जाने क्यों नज़र लग जाती है |
अपनी ही बात कहके वो पछताती है ...
... चार लोगों के सामने 
जब वो अपने प्यार पर इतराती है |

अपने आप से भी दिन-रात छुपाती है |
हर रात उसको खुद से ज़्यादा चाहती है |
मन की खिड़की हमेशा उसे बताती है ...
तू उसे फज़ूल में ही चाहती है |

फूलों की तरह फूली नहीं समाती है |
जब ख्वाब में उससे मिलने जाती है |
टूटे शीशों की तरह भिखर जाती है ...
... जब उसको मिल के आती है |

आँसुओं को सहलाती है
और खुद को अब रोज़ बताती है ...
... अपने प्यार को ज़्यादातर,
अपनी ही नज़र लग जाती है || 

8 comments:

Fani Raj Mani CHANDAN said...

अब हम क्या कहें... बस हमारी नज़र न लग जाये
बहुत ख़ूब

सुरेन्द्र "मुल्हिद" said...

aapki lekhni padh ke bas ek hee baat mu se nikal jaati hai...

kya baat...kya baat...kya baat...

ek aur mitr ne blog world mein qadam rakha hai...aasha karta hoon aap uska haunslaa badhaayengi aur follower ban ke usey guide bhi karengi...

http://mayassarmini.blogspot.com/

CHAITNYA said...

सुंदर कविता

CHAITNYA said...

सुंदर कविता मेरा ब्लाग www.prabhakarvani.blogspot.com

Anjana Dayal de Prewitt (Gudia) said...

bahut sunder

Patali-The-Village said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति| धन्यवाद|

निर्मला कपिला said...

अपने प्यार को ज़्यादातर,
अपनी ही नज़र लग जाती है ||
शायद सही हो! स्वागत है आपका। शुभकामनायें।

MAN with a MISSION said...

bahut khoob kaha aap ne.....
फूलों की तरह फूली नहीं समाती है |
जब ख्वाब में उससे मिलने जाती है |
टूटे शीशों की तरह भिखर जाती है ...
... जब उसको मिल के आती है |