Thursday, February 17, 2011


न जाने क्यों नज़र लग जाती है |
अपनी ही बात कहके वो पछताती है ...
... चार लोगों के सामने 
जब वो अपने प्यार पर इतराती है |

अपने आप से भी दिन-रात छुपाती है |
हर रात उसको खुद से ज़्यादा चाहती है |
मन की खिड़की हमेशा उसे बताती है ...
तू उसे फज़ूल में ही चाहती है |

फूलों की तरह फूली नहीं समाती है |
जब ख्वाब में उससे मिलने जाती है |
टूटे शीशों की तरह भिखर जाती है ...
... जब उसको मिल के आती है |

आँसुओं को सहलाती है
और खुद को अब रोज़ बताती है ...
... अपने प्यार को ज़्यादातर,
अपनी ही नज़र लग जाती है ||